प्राचीनकाल से ही काशी शिव-क्रीड़ा का केंद्र रहा है| एक बार भगवान शिव पार्वती सहित काशी पधारे|
प्राचीनकाल से ही काशी शिव-क्रीड़ा का केंद्र रहा है| एक बार भगवान शिव पार्वती सहित काशी पधारे| वे कुछ दिन काशी में रुके, तत्पश्चात मंदराचल पर चले गए| मंदराचल पर शीतल-मंद समीर बह रही थी| शिव बड़ी तन्मयता से प्रकृति की छटा देखने लगे| तभी एकाएक पीछे से आकर पार्वती ने परिहास पूर्वक उनके दोनों नेत्र बंद कर दिए| माता पार्वती के हाथों के पसीने और भगवान शिव के चेहरे के तेज से शिवजी के नेत्रों के कोर से पानी टपक गया और उससे एक कराल मुख, भयंकर-क्रोधी, अंधा और कृष्ण वर्ण का बालक पैदा हो गया| वह पैदा होते ही चिल्लाने और नाचने लगा और बार-बार अपनी जीभ निकाल कर डरावनी चेष्टाएं करने लगा| यह देख पार्वती भयभीत हो गईं| उन्होंने शिव से उस विकराल बालक के विषय में पूछा तो शिव ने बताया कि वह उन्हीं का पुत्र है, जो नेत्रों से पानी बहकर गिरने के कारण उत्पन्न हो गया है| पार्वती ने उसके पालन-पोषण का दायित्व अपनी सखी को सौंप दिया और वह बालक उनकी सखी द्वारा पोषित होने लगा| पार्वती जी ने उसका नाम अंधक रखा|
इसी बीच हिरण्यकशिपु का भाई हिरण्याक्ष शिव की तपस्या में तल्लीन था| उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने उससे वर मांगने को कहा – “उठो पुत्र! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं| बोलो क्या वर मांगते हो|”
हिरण्याक्ष बोला – “भगवन! मुझे एक पुत्र की कामना है| मेरे भाई के तो चार पुत्र हैं, किंतु मेरी पत्नी की गोद खाली है| कृपया मुझे पुत्र प्राप्ति का वरदान दें|”
शिव बोले – “तुम्हारे भाग्य में पुत्र प्राप्ति का योग नहीं है दैत्यराज! लेकिन मैं तुम्हें अपना पुत्र दे सकता हूं| वह अंधा है परंतु बहुत बलशाली है| भविष्य में वह महाबलवान पुरुष बनेगा|”
यह कहकर शिव ने अंधक को हिरण्याक्ष के हाथों में दे दिया| हिरण्याक्ष अंधक को लेकर खुशी-खुशी अपने राज्य लौट गया| अंधक राजमहल में बड़ा होने लगा|
तभी देवासुर संग्राम छिड़ गया और भगवान विष्णु द्वारा हिरण्याक्ष मारा गया| हिरण्याक्ष का बड़ा भाई हिरण्यकशिपु छिप कर भाग निकला| हिरण्याक्ष के मरने के बाद राजमहल में अंधक की उपेक्षा होने लगी| उसके अन्य चचेरे भाई और संगी-साथी उसे चिढ़ाने लगे| इससे अंधक दुखी रहने लगा| एक दिन उसके व्यवहार से तंग आकर वह तपस्या करने निकल पड़ा और एक निर्जन वन में पहुंचकर ब्रह्मा जी की साधना में लीन हो गया| तप करते हुए उसे कई वर्ष बीत गए| उसके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट हुए और उससे वर मांगने को कहा|
अंधक ब्रह्मा जी के चरणों में गिरकर बोला – “पितामह! मुझे ऐसा वर दीजिए कि मेरा अपमान करने वाले मेरे सभी भाई मेरी दासता करें| मेरे दिव्य नेत्र हो जाएं| मेरी किसी के द्वारा मृत्यु न हो|”
यह सुनकर ब्रह्मा जी बोले – “और सब तो ठीक है वत्स! तुम्हारे नेत्र दिव्य हो जाएंगे, तुम्हारे सारे भाई भी तुम्हारी दासता स्वीकार कर लेंगे| किंतु तुम मनुष्य हो और कालचक्र का नियम है कि कोई भी मनुष्य मृत्यु से अछूता नहीं रह सकता|”
अंधक बोला – “तो फिर ऐसा ही वरदान दीजिए कि मेरे शरीर से निकले रक्त की एक-एक बूंद से मेरे जैसे पराक्रमी वीर उत्पन्न हो जाएं|”
ब्रह्मा जी बोले – “ठीक है| मैं तुम्हें यह वरदान देता हूं| साथ ही यह भी वरदान देता हूं कि तुम्हारी मृत्यु विष्णु तथा शिव के द्वारा नहीं होगी|”
अंधक को वरदान देकर ब्रह्मा जी अंतर्धान हो गए और अंधक वरदान पाकर एकदम सुपुष्ट एवं नेत्रवान पुरुष बन गया| वह वापस दैत्यपुरी लौट आया| वरदान प्राप्त करके वह बेहद कामुक हो गया| उसके अत्याचारों से नाग, यक्ष तथा देव-गंधर्व सभी दुखी रहने लगे| वे सब ब्रह्मा जी की शरण में पहुंचे| किंतु ब्रह्मा जी उन्हें कोई आश्वासन नहीं दे सके| क्योंकि अंधकासुर उन्हीं के वरदान स्वरूप तो यह उत्पात मचाए हुए था| आखिर निराश होकर सब लोग शिव के पास पहुंचे और उन्हें अंधकासुर के अत्याचारों के बारे में अवगत कराया| शिव ने उन्हें आश्वस्त किया| आश्वस्त होकर वे अपने स्थानों को लौट गए|
शिव पार्वती मंदराचल पर्वत पर ठहरे हुए थे| तभी एक बार अंधक अपनी सेना के साथ मंदराचल पर पहुंचा| पर्वत की सुरम्यता देखकर वह विभोर हो उठा| उसने सोचा – ‘कितना सुंदर स्थान है| क्यों न यहां अपने लिए एक स्थायी नगर का निर्माण करा दिया जाए|’ यह सोच उसने अपने एक सेवक को आदेश दिया – “तुम कोई उचित स्थान तलाश करो, जहां हमारे लिए एक दिव्य महल बन सके|”
आज्ञा पाकर सेवक उचित स्थान की खोज में निकल पड़ा| कुछ दूर जाने पर उसे एक जटाधारी पुरुष तप करता दिखाई दिया| उसके समीप ही एक सुंदर स्त्री बैठी हुई थी| उसने सोचा-‘वाह! क्या सुंदरी है| लेकिन यह इस तपस्वी के पास क्या कर रही है| इसे तो राजमहल की शोभा होनी चाहिए| चल कर महाराज को सूचित करूं|’ यह सोचकर वह वापस लौट आया और अंधक को सारा वृतांत कह सुनाया| सुनकर अंधक बोला – “फिर से जाओ और उस सुंदरी को उठाकर मेरे पास ले आओ और उसे साथ के तपस्वी पुरुष को कह देना कि मैं दैत्यराज अंधक का दूत हूं और उनके लिए इस सुंदरी को ले जाना चाहता हूं|”
दूत पुन: उसी स्थान पर जा पहुंचा| तब तक शिव भजन-पूजा से निवृत हो चुके थे| उसने अपने स्वामी अंधक का आदेश उन्हें कह सुनाया| सुनकर शिव ने उससे कहा – “जाओ, अपने महाराज से कह देना से किसी की पत्नी पर कुदुष्टि डालना बहुत ही अनुचित कार्य होता है|”
यह सुनकर दूत वापस लौट आया| उसने अंधक को शिव द्वारा दिया गया उत्तर सुना दिया| सुनकर अंधक गुस्से से आग-बबूला हो उठा| वह अपनी सेना की एक टुकड़ी लेकर शिव पर टूट पड़ा| लेकिन शिव के गण वीरभद्र ने उन्हें मारकर भगा दिया| अंधक के सेनापति नील ने मायावी हाथी का वेश धारण किया और वह शिव गणों की ओर लपका| यह देख वीरभद्र ने तुरंत सिंह का वेश धारण कर लिया और नील का वध कर डाला| दूसरी ओर नंदी अंधक से युद्ध कर रहा था| उसने इतने प्रबल वेग से आक्रमण किया कि अंधक को जान बचाने के अलावा और कुछ न सूझ सका और वह अपनी सेना सहित भाग गया|
अंधक के पराजित होकर भागने के पश्चात शिव पाशुपत नामक व्रत करने लगे| पार्वती को उन्होंने मंदराचल स्थित देवी मंदिर में भेज दिया और शिव के गण देवी के मंदिर पर पहरा देने लगे| अंधक अपनी पराजय को न भूल सका| उसने पुन: सेना एकत्र की और हमला कर दिया| घनघोर युद्ध छिड़ गया| अंधक ने नंदीश्वर को मुर्च्छित कर दिया|
देवर्षि नारद द्वारा यह समाचार विष्णु तक पहुंचाया गया| इंद्र आदि को भी यह संदेश भेजा गया| देखते ही देखते देवों की एक विशाल सेना मंदराचल पर आ जुटी| देवों और दैत्यों में भयानक युद्ध छिड़ गया| लेकिन दैत्यों की प्रबल मार के आगे देवताओं की हार होने लगी| उनके पैर उखड़ने लगे|
अंधक ने एक बार फिर शिव के पास संदेश भिजवाया कि उस स्त्री को मुझे सौंप दो, और अपनी जान बचा लो अन्यथा शीघ्र ही अन्य देवों के साथ-साथ तुम्हें भी यमलोक पहुंचना पड़ेगा| यह संदेश सुनकर शिव के नेत्र जल उठे| उन्होंने हुंकार भरते हुए अपना त्रिशूल उठा लिया| तभी घबराया हुआ नंदी वहां पहुंचा और शिव से बोला – “प्रभु! दैत्य सेना बहुत ही प्रवल है| हमारे समस्त गण मारे गए| देवता मैदान छोड़कर भाग निकले हैं| मैं किसी तरह जान बचाकर आया हूं|”
शिव बोले – “धैर्य रखो नंदीश्वर! अब उस दैत्य का अंत समय आ पहुंचा है| मैं स्वयं युद्ध भूमि में चलता हूं|”
यह कहकर शिव युद्ध भूमि में पहुंचे और अंधक से भिड़ गए| भयानक युद्ध छिड़ गया| भगवान शिव लगातार अंधक के बाणों से अपना बचाव करते हुए त्रिशूल से प्रहार करते रहे| किंतु उनका हर प्रयत्न विफल हो रहा था| जैसे ही अंधक का कोई अंग घायल होता, उससे रक्त निकलता और उस रक्त से उस जैसे ही अनेक दैत्य पैदा हो जाते थे|
उधर शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या के बल पर मरे हुए दैत्यों को पुन: जीवित कर देते थे| फलस्वरूप शिव के चारों ओर दैत्यों की एक विशाल सेना खड़ी हो गई| शिव ने अपने गणों को आदेश दिया कि शुक्राचार्य को बांधकर यहां ले आएं ताकि वे दैत्यों को पुन: जीवित न कर सकें| गण शुक्राचार्य को बांधकर ले आए और उन्हें शिव के सम्मुख खड़ा कर दिया| फिर भगवन शिव ने विराट रूप धारण कर लिया| उनका मुंह खुला और देखते ही देखते उन्होंने शुक्राचार्य को निगल लिया| इससे शिवगणों का उत्साह दुगुना हो गया| उन्होंने दुगुने जोश से दैत्यों का संहार करना आरम्भ कर दिया| दैत्य सेना में भगदड़ मच गई और शीघ्र ही सारी सेना मैदान छोड़कर भाग निकली| अकेला अंधक भगवान शिव के सम्मुख डटा रहा|
शिव और अंधक में भयानक युद्ध छिड़ गया| अंधक को अपने पर भारी पड़ता देख भगवान शिव ने अपने मुख से एक महाज्वाला उत्पन्न की| वह योगेश्वरी थी| माता महाकाली ने रक्तपान करना आरंभ कर दिया| शिव त्रिशूल चलाते, अंधक के शरीर से रक्त फूटता और माता काली रक्त को जमीन पर गिरने से पहले ही पान कर जाती| इससे अंधक बलहीन हो गया| उसके कदम लड़खड़ाने लगे| भगवन शिव ने उसके हृदय को निशाना बनाकर त्रिशूल चलाया और अंधक का हृदय बेध दिया, साथ ही उसे त्रिशूल के ऊपर टांग दिया| अंधक के गिरते रक्त को नीचे खड़ी काली सहित सभी योगनियां जमीन पर गिरने से पहले ही अपने विशाल मुख में लुप्त करने लगीं|
फिर युद्ध शांत हो गया लेकिन ब्रह्मा जी के वरदान स्वरूप अंधक नहीं मर सका| वह त्रिशूल पर टंगा-टंगा ही शिव का जाप करता हुआ अपनी भूल का प्रायश्चित करने लगा| दयालु शिव उसके जप से प्रसन्न हुए और उसे त्रिशूल से नीचे उतारा और वर मांगने को कहा|
अंधक ने शिव के चरणों में प्रणाम करके कहा – “भगवन! मुझे क्षमा करें| मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया था| मैंने माता पार्वती पर कुदृष्टि डाली थी| अब से मैं आपकी सेवा में रहूंगा और कभी भी अपने अंदर दैत्य भाव जाग्रत न होने दूंगा| न ही देव विरोधी कार्य करूंगा| प्रभु! मैं चाहता हूं कि मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाए| आज से मैं हर समय आपकी सेवा में दास की तरह उपस्थित रहूं| मेरे समस्त विकार धुल जाएं|”
‘तथास्तु’ कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए|
त्रिपुरारी रुद्र की कृपा से भू-मंडल पर एक बार फिर से धर्म ध्वजा फहराने लगी| एक बार फिर वैदिक धर्म का पालन होने लगा| जगह-जगह यज्ञ-हवन होने लगे| वातावरण में फिर मंत्र गूंजने लगे|