मन्त्र का बिल्कुल शुद्ध उच्चारण करना एक आम व्यक्ति के लिये संभव नहीं है।

मन्त्र का बिल्कुल शुद्ध उच्चारण करना एक आम व्यक्ति के लिये संभव नहीं है।
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मन्त्र का बिल्कुल शुद्ध उच्चारण करना एक आम व्यक्ति के लिये संभव नहीं है।

शुद्ध और अशुद्ध मन्त्र जाप .............

कई बार मानव अपने जीवन में आ रहे दुःख ओर संकटो से मुक्ति पाने के लिये किसी विशेष मन्त्र का जाप करता है.. लेकिन मन्त्र का बिल्कुल शुद्ध उच्चारण करना एक आम व्यक्ति के लिये संभव नहीं है।

कई लोग कहा करते है.. कि देवता भक्त का भाव देखते हैं। वो शुद्धि अशुद्धि पर ध्यान नहीं देते है, उनका कहना भी सही है, इस संबंध में एक प्रमाण भी है...
"मूर्खो वदति विष्णाय, ज्ञानी वदति विष्णवे।
द्वयोरेव संमं पुण्यं, भावग्राही जनार्दनः।।"

भावार्थ: मूर्ख व्यक्ति "ऊँ विष्णाय नमः" बोलेगा... ज्ञानी व्यक्ति "ऊँ विष्णवे नमः" बोलेगा.. फिर भी इन दोनों का पुण्य समान है.. क्यों कि भगवान केवल भावों को ग्रहण करने वाले है...

जब कोई भक्त भगवान को निष्काम भाव से, बिना किसी स्वार्थ के याद करता है.. तब भगवान भक्त कि क्रिया ओर मन्त्र कि शुद्धि अशुद्धि के ऊपर ध्यान नहीं देते है.. वो केवल भक्त का भाव देखते है...

लेकिन जब कोई व्यक्ति किसी विशेष मनोरथ को पूर्ण करने के लिये किसी मन्त्र का जाप या स्तोत्र का पाठ करता है.. तब संबंधित देवता उस व्यक्ति कि छोटी से छोटी क्रिया ओर अशुद्ध उच्चारण पर ध्यान देते है... जैसा वो जाप या पाठ करता है वैसा ही उसको फल प्राप्त होता है।

क्या मन्त्र जाप का फल सबके लिए एकसा होता हैं..............

रामकृष्ण परमहंस से किसी जिज्ञासु ने पूछा-

“क्या मंत्रजप सबके लिए एक समान फलदायक होते हैं?” उन्होंने उत्तर दिया-नहीं। ऐसा क्यों? के उत्तर में परमहंस जी ने जिज्ञासु को एक कथा सुनाई।

एक राजा था। उसका मंत्री नित्य जाप करता था। राजा ने जप का फल पूछा तो उसने कहा-“वह सबके लिए समान नहीं होता।” इस पर राजा को असमंजस हुआ और कारण बताने का आग्रह करने लगा। मंत्री बहुत दिन तक तो टालता रहा, पर एक दिन उपयुक्त अवसर देखकर समाधान कर देने का निश्चय किया।

मंत्री और राजा, एकांत-वार्ता कर रहे थे। एक छोटा बालक भी वहां पर खड़ा था। मंत्री ने बच्चे से कहा-“राजा साहब के मुंह पर पांच चपत जमाओं, मंत्री की बात पर बच्चे ने ध्यान नहीं दिया और जैसे का तैसा खड़ा रहा।” इस अपमान पर राजा को बहुत क्रोध आया और उसने बच्चे को हुक्म दिया-“मंत्री के मुंह पर जोर से पांच चपत लगाओं। बच्चा तुरंत बढ़ा और उसने तड़ातड़ चांटे लगा दिए।”

मंत्री ने निश्चिंतता पूर्वक कहा-“राजन! मंत्रशक्ति इस बच्चे की तरह हैं, जिसे इस बात का विवेक रहता हैं कि किसका कहना मानना चाहिए, किसका नहीं? किस पर अनुग्रह करना चाहिए, किस पर नहीं।”

मन्त्रों की शक्ति, मन्त्र जाप का चमत्कार ........

योगीराज महर्षि अरविन्द ने कहा है कि ग्रह नक्षत्रों की संरचना से लेकर विज्ञान के अनेकानेक रहस्यों का उद्घाटन करके निस्सन्देह मनुष्य ने बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है किन्तु यदि हमारे पास मनुष्य की आत्मा को समझ सकने वाला यन्त्र रहा होता तो प्रतीत होता कि उस महत्व के सामने पदार्थ -विज्ञान की समस्त उपलब्धियाँ अत्यन्त ही नगण्य हैं।

मनुष्य की प्रकट और अप्रकट शक्तियों में से एक अति महत्वपूर्ण शक्ति है उसकी वाणी। वाणी के सहारे वह ज्ञानार्जन करता है, एक की विविध साँसारिक क्रिया - कलाप चलते हैं। वाणी रहित मानव -समाज की कैसी गई -गुजरी स्थिति होती इसकी कल्पना मात्र से सिहरन उत्पन्न होती है। वाणी का भौतिक महत्व असंदिग्ध है। दूसरों को मित्र और शत्रु बनाने का उल्लास और रोष उत्पन्न करने का जितना काम वाणी करती है उतना कर सकने वाला संसार में भी आधार नहीं है।

वाणी का आध्यात्मिक आधार और भी अधिक महत्वपूर्ण है। मंत्राराधना इसी प्रकार की रहस्यमयी प्रक्रिया है जिसके आधार पर मनुष्य की सर्वतोमुखी प्रगति और दूसरों की सहायता की पृष्ठभूमि बनती है। मन्त्रशक्ति के लाभ और प्रभाव से हम सभी परिचित हैं। यदि यह साधना ठीक प्रकार से की जा सके तो उस रहस्यमयी शक्ति का प्रचुर परिणाम में उत्पादन किया जा सकता है जो मनुष्य के भौतिक और आत्मिक क्षेत्रों को आश्चर्यजनक सफलताओं से भर सकती हैं। मन्त्र-शक्ति में चमत्कारों का प्रधान आधार है-शब्द। शब्द-शक्ति का स्फोट । इसके साथ ही साधक की शारीरिक , मानसिक और भावनात्मक स्थिति की पृष्ठभूमि जुड़ी हुई है। इन सब के समन्वय से ही वह प्रभाव उत्पन्न होता है जिसे मन्त्र -शक्ति का चमत्कार कहा जा सके।

शब्दोच्चारण में जिह्वा, ओष्ठ , दाँत तालु और कण्ठ आदि मुख से सम्बन्धित कई अवयवों का संचालन होता है तब कहीं पूर्ण ध्वनि निकलती है। केवल जिह्वा का ही अवलम्बन हो तो मनुष्य भी पशु-पक्षियों की तरह थोड़ी सी ही ध्वनियों का उच्चारण कर सके। मन्त्रों का गठन शब्द विद्या के गूढ़ रहस्यों को ध्यान में रखकर किया गया है। उनके शब्दोच्चारण से मुख अवयव ही गति नहीं करते वरन् उनकी हलचल सूक्ष्म शरीर के रहस्यमय केन्द्रों को भी प्रभावित करती हैं। षट्-चक्र, तीन ग्रन्थियों, तीन नाड़ियों, दश-प्राण, चौवन उपत्यिकाओं आदि को सूक्ष्म-शरीर का अति महत्वपूर्ण संस्थान कहना चाहिए। उनको सक्रिय एवं जाग्रत बनाने में मन्त्र के अक्षरों का प्रवाह महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता है।

टाइप राइटर की कुंजियों पर उँगली दबाते ही दूर रखे कागज पर तीलियाँ गिरनी आरम्भ हो जाती हैं और अक्षर छपने लगते हैं। हारमोनियम की कुंजियों पर उँगली रखते ही रीड़ खुलती हैं और स्वर गूँजने लगते हैं। ठीक यही प्रक्रिया मन्त्रोच्चार में होती है। मुख में होने वाली क्रिया सूक्ष्म-शरीर के विभिन्न शक्ति-संस्थानों पर प्रहार करके उनमें विशिष्ट हलचल उत्पन्न करती है तदनुसार साधक की अन्तःसत्ता में जागरण एवं स्फुरण के ऐसे दौर आते हैं जिनके सहारे चमत्कारी दिव्य शक्तियाँ जाग्रत हो सकें और साधक ऐसी विभूतियों से भर सकें जैसी कि सर्वसाधारण में नहीं पाई जातीं।

मोटे तौर पर शब्द का प्रयोजन कर्णेन्द्रिय के माध्यम से कतिपय जानकारियाँ मस्तिष्क तक पहुँचाना भर समझा जाता है पर बात इतनी छोटी नहीं है। शब्द की शक्ति पर जितना गहरा चिन्तन किया जाय उतनी ही उसकी गरिमा और विलक्षणता स्पष्ट होती चली जाती है। बादलों की गरज से ऊँची इमारतें फट जाती हैं। आज की याँत्रिक सभ्यता जितना शोर उत्पन्न कर रही है उसके दुष्परिणामों से मानव जाति को अपूर्णनीय क्षति उठानी पड़ेगी। इस तथ्य से समस्त संसार चिन्तित है। अतिस्वन और जेट-विमान आकाश में जितनी आवाज करते हैं उससे उत्पन्न होने वाली हानिकारक प्रतिक्रिया को सर्वत्र समझा जा रहा है और इन विशालकाय द्रुतगामी यानों को कोलाहल रहित बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है। यंत्र भी ऐसी कर्णातीत ध्वनियाँ उत्पन्न करते हैं जो आश्चर्यजनक और अप्रत्याशित परिणाम उत्पन्न कर सकें।

संगीत अब मनोरंजन मात्र नहीं रहा वरन् उसे एक महत्वपूर्ण शक्ति स्वीकार कर लिया गया है। संगीत की अमुक ध्वनि, लहरें मानसिक और शारीरिक रोगों के निवारण में चमत्कारी लाभ प्रस्तुत कर रहे हैं। संसार के सुविकसित अस्पतालों में संगीत ध्वनि-प्रवाह का पूरा-पूरा लाभ रोगियों को दिया जा रहा है। पशुओं का दूध बढ़ाने में-पौधों को अधिक विकसित करने में संगीत का प्रयोग उत्साहपूर्वक किया जा रहा है। जापान में बच्चों में सहृदयता और अनुशासनप्रियता बढ़ाने के लिए आरम्भिक स्कूलों से ही संगीत का प्रशिक्षण किया जा रहा है। रणभेरी बजने का-सामूहिक लोक-नृत्यों, का कैसा उत्साहवर्धक प्रभाव उत्पन्न होता है यह सर्वविदित है। संगीत वस्तुतः ध्वनि-प्रवाह का एक विशेष क्रम मात्र है। मन्त्र को भी इसी आधार पर विनिर्मित समझना चाहिये। उनके अक्षरों के चयन का क्रम तथा उच्चारण का अनुशासन दोनों को मिलाकर एक प्रकार से विशिष्ट संगीत का ही प्रादुर्भाव होता है उसके द्वारा साधक को अतिरिक्त विशेषताओं से सम्पन्न बनने का अवसर मिलता है। इसका आत्मबल प्रचण्ड बनता है और अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति का पथ प्रशस्त होता है।

मन्त्रों की विशेषता शब्दों के एक विशेष क्रम से चयन गुँथन में है। वे ध्वनि विज्ञान के एक विशेष नियम क्रम के अनुरूप गढ़े होते हैं जिनका एक ही प्रवाह से देर तक उच्चारण करने से एक विशेष स्तर की ऊर्जा उत्पन्न होती है। शब्दों के एक ही क्रम-प्रवाह को लगातार जारी रखना अपने आप में एक अद्भुत प्रयोग है। हाथों को एक ही गति से रगड़ने पर वे बात की बात में गरम हो जाते हैं। कुछ एक शब्दों को एक ही क्रम में-एक ही गति से-एक ही स्वर से उच्चरित किया जाय तो उसकी प्रतिक्रिया से न केवल उस व्यक्ति का शरीर और मन वरन् समीपवर्ती वातावरण भी उत्तेजित हो जायगा। व्यक्ति में मंत्र की प्रतिक्रिया की समुचित मात्रा उत्पन्न होना आवेश कहा जाता है। इनकी अनुभूति शरीर या मन में किसी विशेष स्फूर्ति, उत्साह एवं विश्वास के रूप में होती है। किसी-किसी को मन्त्र देवता का साक्षात्कार होता है और सफलता का आशीर्वाद सुनाई पड़ता है। यह स्थूल कानों से स्थूल आँखों से नहीं होता वरन् पूर्णतया सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म इन्द्रियाँ ही उसकी अनुभूति करती हैं फिर भी कई बार उसमें इतनी प्रखरता होती है कि उस क्षण स्थूल जैसा ही दर्शन या श्रवण का आभास होता है। आवश्यक नहीं कि हर मन्त्र सिद्धि से हर किसी को श्रवण या दर्शन मिले, पर विश्वास और निष्ठा को परिपक्वता , उत्साह एवं मनोबल का अनुभव अवश्य होता है। सफलता व्यक्त करने वाली प्रसन्नता, चेहरे पर और विजय उपलब्धि की चमक साधक की आँखों में स्पष्ट देखी जा सकती है। इन सफलता सूचक अनुभूतियों को स्फोट कहा गया है।

मन्त्र की भाव-भूमिका चुम्बकत्व उत्पन्न करती है और स्फोट उसे असंख्य गुना विस्तृत एवं सशक्त बनाता है। अणु का आरम्भिक विस्फोट सामान्य होता है उसके चारों ओर घिरा वातावरण ही गुणन-शक्ति उत्पन्न करके उसे अति भयंकर बनाता है। यही प्रक्रिया मन्त्र में भी होती है। मंत्र में सन्निहित भावना, कर्मकाण्ड के साथ जुड़ी श्रद्धा तप साधना से उत्पन्न शब्द-शक्ति का प्रचण्ड प्रवाह जैसी अनेकों रहस्यमयी मंत्राराधन की विशेषताएँ मन्त्र को जाग्रत करती हैं और निष्ठावान साधकों को सिद्ध-माँत्रिक के स्तर पर पहुँचा देती हैं।

यहाँ एक बात और ध्यान रखने योग्य है कि मंत्राराधना में प्रयुक्त होने वाले हर उपकरण में - पदार्थ में अवयव में-दिव्य-सत्ता का आह्वान करना पड़ता है और उसे सामान्य पदार्थ न रहने देकर देव आयुध के रूप में प्रतिष्ठापित करना पड़ता है। स्नान के जल में तीर्थों का, आत्म का अवतरण कराने वाले मन्त्रों का, उच्चारण जल में वरुण देव सहित अन्य देवों का आह्वान है। इस प्रकार श्रद्धासिक्त जल से स्नान करने पर साधक की निष्ठा में गहरा पुट लगता है। आसन, माला, पंचपात्र, दीपक, चन्दन पुष्प आदि उपकरणों के प्रयोग में मन्त्रोच्चारण एवं अमुक क्रम विधान अपनाने की जो परम्परा है उसे निरर्थक नहीं माना जाना चाहिए। यथाक्रम करने से वे सामान्य लगने वाली वस्तुयें उस विशेष चेतन-स्तर की बनती हैं जिसकी कि मन्त्र प्रयोग में आवश्यकता है। इष्टदेव की प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा-षोडशोपचार पूजन जैसी व्यवस्थायें उसी दृष्टि से हैं कि गहन श्रद्धा का आरोपण उस पार्थिव प्रतीक को समर्थ-सत्ता का प्रतिनिधि बनाकर प्रचण्ड प्रेरणा देने का प्रयोजन पूरा कर सके।

साधक को अपने अंग-प्रत्यंग में न्यास-मन्त्रों द्वारा विविध देव -शक्तियों की प्रतिष्ठापना करनी पड़ती है। पवित्रीकरण, आचमन, प्राणायाम, न्यास का प्रयोजन सूक्ष्म-स्थूल और कारण-शरीरों को परिशुद्ध बनाता है। साधना-विज्ञान का अभिमत है कि देव बनकर ही देवाराधना करना चाहिए। शरीर और मन का परिमार्जन करने के लिए मन्त्र जप आरम्भ करने से पूर्व कई तरह के कर्मकाण्ड-विधि-विधान करने होते हैं इनमें से बहुत से अपने में देव-भाव की स्थापना के लिये होते हैं । यह प्रयोग साधना में प्रयुक्त होने पर उपकरणों को सफलता में सहायक रहने योग्य बनाते हैं।

मन्त्र से भावनायें और विचारणायें जुड़ी रहती हैं और एक ही विचारधारा को लगातार मस्तिष्क में स्थान देते रहने से वह चिन्तन विचार-प्रक्रिया पर सवार हो जाता है और एक चिरंतन प्रवाह का रूप धारण करता है। यह मार्ग मस्तिष्कीय प्रशिक्षण एवं परिवर्तन की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है। इससे मन को किसी विशेष भूमिका में रमण करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। विकृतियों को सुधारा जा सकता है और अभिरुचि तथा प्रकृति में परिवर्तन लाया जा सकता है। यह अर्थ चिन्तन को स्थान देते हुए मन्त्रानुष्ठान का सामान्य लाभ हुआ।

शब्द - शक्ति का स्फोट मन्त्र-शक्ति की रहस्यमय प्रक्रिया है। अणु विस्फोट से उत्पन्न होने वाली भयावह शक्ति की जानकारी हम सभी को है। शब्द की एक शक्ति-सत्ता है। उसके कंपन भी चिरन्तन घटकों के सम्मिश्रण से बनते हैं। इन शब्द-कंपन घटकों का विस्फोट भी अणु विखण्डन की तरह ही हो सकता है। मन्त्र योग साधना के उपचारों के पीछे लगभग वैसी ही, विधि-व्यवस्था रहती है। मन्त्रों की शब्द चरना का गठन तत्वदर्शी मनीषी तथा दिव्यदृष्टा मनीषियोँ ने इस प्रकार किया है कि उनका जपात्मक, होमात्मक तथा दूसरे तप-साधनों एवं कर्मकाण्डों के सहारे अभीष्ट स्फोट किया जा सके। वर्तमान बोलचाल में विस्फोट शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है। लगभग उसी में संस्कृत में स्फोट का भी प्रयोग किया जाता है। मन्त्राराधन वस्तुतः शब्द-शक्ति का विस्फोट ही है।

शब्द-स्फोट से ऐसी ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं जिन्हें कानों की श्रवण-शक्ति से बाहर की कहा जा सकता है। शब्द आकाश का विषय है। इसलिये मान्त्रिक का कार्यक्षेत्र आकाश-तत्व रहता है। योगी वायु उपासक है। उसे प्राणशक्ति का संचय वायु के माध्यम से करना पड़ता है। इस दृष्टि से मान्त्रिक को योगी से भी वरिष्ठ कहा जा सकता है। सच्चा मान्त्रिक योगी से कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही शक्तिशाली हो सकता है।

मन्त्राराधना में जहाँ शब्द-शक्ति का विस्फोट होता है। विस्फोट में गुणन-शक्ति है। मन्त्र द्वारा सर्वप्रथम देवस्थापन की सघन निष्ठा उत्पन्न की जाती है। यह भाव चुम्बकत्व है। श्रद्धा - शक्ति के उद्भव का प्रथम चरण है। इस आरम्भिक उपार्जन का शक्ति गुणन करतीं चली जाती है और छोटा सा बीज विशाल वृक्ष बन जाता है। विचार का चुंबकत्व सर्वविदित है। इष्ट देव की-मन्त्र अधिपति की शक्ति एवं विशेषताओं का स्तवन, पूजन के साथ स्मरण किया जाता है और अपने विश्वास में उसमें सर्वशक्ति-सत्ता एवं अनुग्रह पर विश्वास जमाया जाता है। निर्धारित कर्मकाण्ड विधि -विधान के द्वारा तथा तप साधना कष्ट साध्य तितीक्षा के द्वारा मन्त्र की गुहा शक्ति के करतल गत हो जाने का भरोसा दीर्घकालीन साधना द्वारा साधक के मनः क्षेत्र में परिपक्व बनता है। यह सब निष्ठायें मिलकर मन्त्र की भाव प्रक्रिया को चुंबकत्व से परिपूर्ण कर देती हैं।

मन्त्र से दो वृत्त बनते हैं एक को भाव-वृत और दूसरे को ध्वनि-वृत्त कह सकते हैं। लगातार की गति अन्ततः एक गोलाई में घूमने लगती है। गह-नक्षत्रों का अपने-अपने अयन वृत्त पर घूमने लगना इसी तथ्य से सम्भव हो सका है कि गति क्रमशः गोलाई में मुड़ती चली जाती है। कोई मनुष्य नाक की सीध चला ही चला जाय तो वह अन्ततः उसी स्थान पर आ जायगा जहाँ से कि चला था। ऐसी पृथ्वी की गोलाई के कारण होता है। पिण्ड-ब्रह्माण्डों की गति तथा आकृति गोल है उसका कारण गतिशीलता है। पहाड़ों से टूटे शिला खण्ड नहीं-प्रवाह में बहते-बहते गोलाकार बनते जाते हैं। और छोटे बनने वाले बालू के कणों के रूप में परिणित हो जाते हैं।

मन्त्र जप में नियत शब्दों को निर्धारित क्रम से देर तक निरन्तर उच्चारण करना पड़ता है। जप यही तो है। इस गति-प्रवाह के दो आधार है एक भाव और दूसरा शब्द। मन्त्र के अन्तराल में सन्निहित भावना का नियम निर्धारित प्रवाह एक भाववृत्ति बना लेता है वह इतना प्रचण्ड होता है कि साधक के व्यक्तित्व को ही पकड़ और जकड़ कर उसे अपनी ढलान में ढाल लें। उच्चारण से उत्पन्न ध्वनि-वृत भी ऐसा ही प्रचण्ड होता है कि उसका स्फोट एक घेरा डाल कर उच्चारण कर्ता को अपने घेरे में कस ले। भाव-वृत अन्तरंग वृत्तियों को शब्द-वृत्त बहिरंग प्रवृत्तियों पर इस प्रकार आच्छादित हो जाता है कि मनुष्य की उभयपक्षी चेतना को अभीष्ट स्तर का तोड़ा-मरोड़ा या ढाला जा सके। मंत्र-विद्या को व्यक्तित्व का स्तर बदलने के लिये सफलता पूर्वक प्रयोग किया जा सकता है। कितने ही दोष दुर्गुण हटाये और मिटाये जा सकते हैं। सद्गुण सत्कर्म और सद्स्वभाव के अभिवर्धन का लाभ मिल सकता है। शारीरिक और मानसिक रुग्णताओं से मुक्ति दिलाने में मंत्र-विद्या का आशातीत उपयोग हो सकता है।

ज्ञानवृत्त और शब्दवृत्त दोनोँ ही अपने-अपने ढंग की शक्तियाँ संजोये हुये हैं। वे ऐसी भी हैं कि अन्यान्य व्यक्तियों को तथा परिस्थितियों के प्रवाह को उलट-पुलट सकें। विष्णु के हाथ में लगा हुआ चक्र-सुदर्शन आत्मबल की प्रचण्ड क्षमता की ओर ही इंगित करता है। मन्त्र की वृत्त परिधियाँ दूसरों के मनः स्तर को बदलने में और परिस्थितियों के कारण बने हुये वातावरण को पलटने में भी चमत्कारी सफलता उत्पन्न कर सकती है।

चेतना का अनन्त सागर वृत्तियों, आवृत्तियों और पुनरावृत्तियों की लहरों में गतिमान है। इन्हीं के चक्रव्यूह में इच्छा, क्रिया और कर्मफल बनकर हमें कहीं से कहीं लिये फिरती हैं। इसी चक्र जाल को बेधन करके हम जीवन मुक्त बनते हैं। इसी भाव उन्मुक्त स्थिति का नाम आत्म-साक्षात्कार, आत्मानुभूति, आत्मज्ञान हैं। यही जीवन का परम लक्ष्य है।