इस संसार में भगवान की विस्मृति ही विपत्ति है और स्मृति ही सम्पत्ति है

इस संसार में भगवान की विस्मृति ही विपत्ति है और स्मृति ही सम्पत्ति है
 

 1.भक्ति का शुभारम्भ ज्ञान है, भक्ति का फल वैराग्य है।

2.भक्ति वृक्ष है, ज्ञान माली और वैराग्य मीठे फल सदृश है।

3.ज्ञान का तात्पर्य है -  "उत्कृष्ट चिंतन" एवं भक्ति का तात्पर्य है - "संवेदना, भावना"।

4. ज्ञान भक्ति की शुरुआत है, प्रारम्भ है और भक्ति ज्ञान की पराकाष्ठा है,अंतिम सोपान है। 

5. ज्ञान और भक्ति , विचार और भावना की दो पतवारों से जीवन की नाव भवसागर से पार लगती है।

6. प्रभु के द्वार पहुँचने के लिए भक्ति एवं ज्ञान, विचार एवं भावना की आवश्यकता होती है।
 इन ज्ञानियों और अज्ञानियों की पहचान भी उनके गुणों, कर्मों एवं स्वभावोंसे ही होती है, वेष आदिसे नहीं; क्योंकि ये वेषादि तो भोगवासना के ही प्रतीक होते हैं। इन वेषोंको देखकर लोग पूजने तो अवश्य ही लगते हैं लेकिन यह उनका कपट अन्ततक निभ नहीं सकता है, उनकी असलियत एक-न-दिन सामने आ ही जाती है। जैसे कि -
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ।।
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू।।
    और जो वास्तवमें ज्ञानी एवं गुणवान् होते हैं, वे तो बुरा वेष बना लेनेपर भी साधु-संत ही माने जाते हैं और कहलाते भी हैं। जैसे कि -
किएहूँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू।।
    इसलिये हमें अन्धविश्वासी नहीं होना चाहिये! अपने-अपने विवेकका भी प्रयोग करना ही चाहिये! क्योंकि अधिकतर लोग प्रकृतिके गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए ही होते हैं और अपने-अपने स्वभावके परवश हुए कर्म करते हैं -
सुधा सुरा सम साधु असाधु। जनक एक जग जलधि अगाधू।।
भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती।।
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू।।
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई।।
      भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
      सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु।।
    ये अच्छे-बुरे सभी पदार्थ भी एक-दूसरेके पूरक ही हैं; क्योंकि अगर इनमें से एक न हो तो दूसरेका पता ही नहीं चल सकता है। इसीलिये ही इस मायिक जगत् की रचना भी जड़-चेतन और गुण-दोषमय ही होती है। लेकिन जो वास्तवमें साधु-संत स्वभावके लोग होते हैं; वे इस जड-चेतन, गुण-दोषरूपी जगत् में से भी हंसके समान मिले हुए दूध और जलमेंसे दूध रूपी गुणोंको ही ग्रहण करते हैं और जल रूपी दोषों को छोड़ देते हैं -
      जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
      संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार।।
    भगवान् श्रीकृष्णजी भी गीतामें कहते हैं -
        सदृशं   चेष्टते   स्वस्याः   प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
        प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।
    सभी प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभावके परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसीका हठ क्या करेगा?।।३/३३।।
    आजकल अधिकतर लोग अन्धविश्वासी ही होते हैं। इसलिये हमको अन्धविश्वासी न होकर सावधान रहना चाहिये! और अपने-अपने विवेक का भी प्रयोग करना चाहिये! क्योंकि यह कलियुग है, और इस कलियुगमें साधु-संत तो बहुत ही कम लोग होते हैं, असाधुओंके ही झुंड-के-झुंड घूमते फिरते हैं -
      ऐसे अधम  मनुज  खल  कृतजुग  त्रेताँ  नाहिं।
      द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं।।
    ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेतामें नहीं होते। द्वापरमें थोड़े-से होगें और कलियुगमें तो इनके झुंड-के-झुंड होंगे।।